1. जागृति ---- ठीक-ठीक वर्तमान में रहना ही चेतना की जागृत अवस्था है।
जब
हम भविष्य की कोई योजना बना रहे होते हैं, तो हम कल्पना-लोक में होते हैं।
कल्पना का यह लोक यथार्थ नहीं होता। यह एक प्रकार का स्वप्न-लोक ही है। जब
हम अतीत की किसी यद् में खोए हुए रहते हैं, तो हम स्मृति-लोक में होते
हैं। यह भी एक दूसरे प्रकार का स्वप्न-लोक है।
तो, वर्तमान में रहना ही, ठीक-ठीक वर्तमान में रहना ही चेतना की जागृत अवस्था है।
2. स्वप्न------ स्वप्न की चेतना एक घाल-मेली चेतना है।
जागृति और निद्रा के बीच की अवस्था, थोड़े -थोड़े जागे, थोड़े -थोड़े सोए से। अस्पष्ट अनुभवों का घाल-मेल रहता है।
3. सुषुप्ति----- सुषुप्ति की चेतना निष्क्रिय अवस्था है
चेतना
की यह अवस्था हमारी इन्द्रियों के विश्राम की अवस्था है। इस अवस्था में
हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ और हमारी कर्मेन्द्रियाँ अपनी सामान्य गतिविधि को
रोक कर विश्राम में चली जाती हैं। यह अवस्था सुख-दुःख के अनुभवों से मुक्त
होती है। किसी प्रकार के कष्ट या किसी प्रकार की पीड़ा का अनुभव नहीं होता।
इस अवस्था में न तो क्रिया होती है, न क्रिया की संभावना।
4. तुरीय----- तुरीय का अर्थ होता है "चौथी"।
चेतना
की चौथी अवस्था को तुरीय चेतना कहते हैं। इसका कोई गुण नहीं होने के कारण
इसका कोई नाम नहीं है। इसके बारे में कुछ कहने की सुविधा के लिए इसकी
संख्या से संबोधित कर लेते हैं। नाम होगा, तो गुण होगा नाम होगा तो रूप भी
होगा। चेतना की इस अवस्था का न तो कोई गुण है न ही कोई रूप।यह निर्गुण है,
निराकार है। यह सिनेमा के सफ़ेद पर्दे जैसी है। जैसे सिनेमा के पर्दे पर
प्रोजेक्टर से आप जो कुछ भी प्रोजेक्ट करो, पर्दा उसे हू-ब-हू प्रक्षेपित
कर देता है। ठीक उसी तरह जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति आदि चेतनाएँ तुरीय के
पर्दे पर ही घटित होती हैं, और जैसी घटित होती हैं, तुरीय चेतना उन्हें
हू-ब-हू, हमारे अनुभव को प्रक्षेपित कर देती है। यह आधार-चेतना है। इसे
समाधि की चेतना भी कहते हैं। यहीं से शुरू होती है हमारी आध्यात्मिक
यात्रा।
5. तुरीयातीत--------चेतना की पाँचवी अवस्था : तुरीय के बाद वाली
यह
अवस्था जागृत, स्वप्ना, सुषुप्ति आदि दैनिक व्यवहार में आने वाली चेतनाओं
में तुरीय का अनुभव स्थाई हो जाने के बाद आती है। चेतना की इसी अवस्था को
प्राप्त व्यक्ति को योगी या योगस्थ कहा जाता है। कर्म-प्रधान जीवन के लिए
चेतना की यह अवस्था सर्वाधिक उपयोगी अवस्था है। इस अवस्था में अधिष्ठित
व्यक्ति निरंतर कर्म करते हुए भी थकता नहीं। सर्वोच्च प्रभावी और अथक कर्म
इसी अवस्था में संभव हो पाता है। योगेश्वर श्री कृष्ण ने अपने शिष्य अर्जुन
को इसी अवस्था में कर्म करने का उपदेश करते हुए कहा था "योगस्थः कुरु
कर्मणि" योग में स्थित हो कर कर्म करो! इस अवस्था में काम और आराम एक ही
बिंदु पर मिल जाते हैं। काम और आराम एक साथ हो जाए तो आदमी थके ही क्यों?
अध्यात्म की भाषा में समझें तो कहेंगे कि "कर्म तो होगा परन्तु संस्कार
नहीं बनेगा।" इस अवस्था को प्राप्त कर लिया, तो हो गए न जीवन रहते
जीवन-मुक्त। चेतना की तुरीयातीत अवस्था को ही सहज-समाधि भी कहते हैं।
6. भगवत चेतना------- बस मैं और तुम वाली चेतना।
चेतना
की इस अवस्था में संसार लुप्त हो जाता है, बस भक्त और भगवान शेष रह जाते
हैं। चेतना की इसी अवस्था में वास्तविक भक्ति का उदय होता है। भक्त को सारा
संसार भगवन-मय ही दिखाई पड़ने लगता है। इसी अवस्था को प्राप्त कर मीरा ने
कहा था "जित देखौं तित श्याम-मई है"। तुरीयातीत चेतना अवस्था में सभी
सांसारिक कर्तव्य पूर्ण कर लेने के बाद भगवत चेतना की अवस्था बिना किसी
साधना के प्राप्त हो जाती है। इसके बाद का विकास सहज, स्वाभाविक और
निस्प्रयास हो जाता है।
7. ब्राह्मी-चेतना------- एकत्व की चेतना
चेतना
की इस अवस्था में भक्त और भगवन का भेद भी ख़त्म हो जाता है। दोनों मिल कर
एक ही हो जाते हैं। इस अवस्था में भेद-दृष्टि का लोप हो जाता है। इसी
अवस्था में साधक कहता है "अहम् ब्रह्मास्मि" मैं ही ब्रह्म हूँ।
चेतना के इस विकास-क्रम के सन्दर्भ में कबीर साहब ने कहा-
लाली मेरे लाल की जित देखों तित लाल
लाली देखन मैं गई ,मैं भी हो गई लाल
-पवन श्री
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