भारतीय दर्शन में "पाँच" संख्या का बड़ा महत्व है। प्राकृतिक संरचना के सन्दर्भ में, मानव शरीर और प्रकृति के अंतर्संबंध में पंचीकरण के समीकरण को समझने का प्रयास किया जाए।
१. पाँच तत्व- १.पृथ्वी २.जल ३.अग्नि ४.वायु और ५.आकाश
२. इन पाँचों तत्वों की पाँच तन्मात्राएँ- १.गंध २.रस ३.रूप ४.स्पर्श और ५.शब्द
३. इन पाँचों तन्मात्राओं की उपभोक्ता हमारी पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ- १. नाक २. जीभ ३. आँख ४ त्वचा और ५. कान
अब उपर्युक्त पंचीकरण की अन्तर्यान्त्रिकी को समझा जाए। प्रथम पाँच तत्व आपस में मिल कर प्रकृति का निर्माण करते हैं। इन्ही पाँचों तत्वों के संयोग से हमारा शरीर भी बना है। शरीर अपने पोषण और संवर्द्धन के लिए बाह्य प्रकृति से इन्ही पाँचों को ग्रहण करता है, लेकिन अपने शुद्ध रूप में ये तत्व हमारे शरीर द्वारा न तो ग्रहणीय हैं न ही पचनीय। हमारी शारीरिक संरचना इन तत्वों को मात्र उनके गुण (तन्मात्रा) रूप में ही ग्रहण करने में सक्षम है। तत्वों के गुण (तन्मात्रा), यानि पृथ्वी तत्व का गुण गंध, जल तत्व का रस, अग्नि तत्व का रूप, वायु तत्व का स्पर्श और आकाश तत्व का शब्द। तत्वों के ये गुण अब हमारे शरीर-यन्त्र द्वारा उपभोग्य हैं। कैसे? हमारी पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ इन पाँच तन्मात्राओं की उपभोक्ता हैं। सम्पूर्ण चक्र इस प्रकार बनता है-
तत्व तन्मात्रा उपभोक्ता इन्द्रिय
१, पृथ्वी गंध नाक
२. जल. रस जीभ
३. अग्नि रूप आँखें
४. वायु स्पर्श त्वचा
५. आकाश शब्द कान
-पवन श्री
No comments:
Post a Comment